ये नन्ही लड़कियाँ भी क्या अजब हैं
उमीदों का नगर बसने लगा है
सँभाला है अभी तो होश, लेकिन
अभी से मन में घर बसने लगा है
वो पर्दे पर जगह पाएगा शायद
झलक अपनी दिखा जाएगा शायद
वो इस इच्छा से टी.वी. देखती है
नज़र वो भीड़ में आएगा शायद
उसे त्योहार की तो याद होगी
यही उम्मीद आँखों में सजी थी
बड़ी तेज़ी से दिल धड़का का था उसका
अभी जब फ़ोन की घंटी बजी थी
कभी तूफ़ाँ की तीखी धार भी हूँ
कभी माँझी,कभी पतवार भी हूँ
मैं पूरब देश की नारी हूँ लेकिन
मैं चुनरी ही नहीं, तलवार भी हूँ
डॉ. मीना अग्रवाल
Monday, October 20, 2008
Subscribe to:
Posts (Atom)