Monday, October 20, 2008

मुक्तक 7

ये नन्ही लड़कियाँ भी क्या अजब हैं
उमीदों का नगर बसने लगा है
सँभाला है अभी तो होश, लेकिन
अभी से मन में घर बसने लगा है

वो पर्दे पर जगह पाएगा शायद
झलक अपनी दिखा जाएगा शायद
वो इस इच्छा से टी.वी. देखती है
नज़र वो भीड़ में आएगा शायद

उसे त्योहार की तो याद होगी
यही उम्मीद आँखों में सजी थी
बड़ी तेज़ी से दिल धड़का का था उसका
अभी जब फ़ोन की घंटी बजी थी

कभी तूफ़ाँ की तीखी धार भी हूँ
कभी माँझी,कभी पतवार भी हूँ
मैं पूरब देश की नारी हूँ लेकिन
मैं चुनरी ही नहीं, तलवार भी हूँ

डॉ. मीना अग्रवाल

12 comments:

शोभा said...

adqui

शोभा said...

दीपावली की शुभ कामनाएं.

प्रदीप मानोरिया said...

अद्वितीय हम कामना करते हैं कि नया वर्ष आपके जीवन में भरपूर खुशियाँ लेकर आए
प्रदीप मनोरिया

Amit K Sagar said...

उम्दा. बहुत ही सुंदर. धन्यवाद. कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें; वो अपने विचार रखें.

Prakash Badal said...

प्रकाश बादल की गजलें

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

bahut hee khub, narayan narayan

!!अक्षय-मन!! said...

कभी तूफ़ाँ की तीखी धार भी हूँ
कभी माँझी,कभी पतवार भी हूँ
मैं पूरब देश की नारी हूँ लेकिन
मैं चुनरी ही नहीं, तलवार भी हूँ
alfaaz nahi hai kaise bayan karuin bahut bahut bahut khubsurat likha hai aapne khaskar ye wala muktak

Anubhooti Bhatnagar said...

BAHUT HI SUNDER KAVITA HAI MA

Akanksha Yadav said...

सुन्दर ब्लॉग...सुन्दर रचना...बधाई !!
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60 वें गणतंत्र दिवस के पावन-पर्व पर आपको ढेरों शुभकामनायें !! ''शब्द-शिखर'' पर ''लोक चेतना में स्वाधीनता की लय" के माध्यम से इसे महसूस करें और अपनी राय दें !!!

विक्रांत बेशर्मा said...

बहुत खूबसूरत !!!!!!!!

Apanatva said...

acchee lagee rachana.

कविता रावत said...

bahut sundar/...